स्वर्ग हूँमें दुर्लभ हमहिं पान !
श्रिंगार सकलसँ समलंकृत, सौन्दर्य-सुरभिसँ वा सुरभित !
नायिका न ता नयनाभिराम, जा रस करती नहि हमर पान !!
शोभा सभाक बेकार थीक, बरियाती सरियाती न ठीक !
जा लेल जाय कहि, देल जाय नहि ताम्बुलें भरि पानदान !!
बलिदान करथु वर बुढ आनि बेटीक, बेचि बटु चलथु फानी !
दू पात हमर, सब पातककें कै देत कात, के ऐहन आन?
की समय पावि नहि महग सस्त? विश्वस्त एक हमहिं प्रशस्त !
कहूँ जाउ पाइमे दू खिल्ली किनि खाऊ सतत नव वा पुरान !!
कियो छिकथि सूंघी, क्यो धुआँ उड़ाबाथि फुकि-फुकि !
तै तमाकुलक जड़दा किमाम धै हमर संग भोजन प्रधान !!
अधरौक उपासक, कफ काशक शासक, कुगन्धी कीटकनाशक !
पावनिक प्राण, श्रम दूर करक साधन, कवि गायक-गणक जान !!
लेखक:- कविचूरामणि पंडित काशी कान्त मिश्र "मधुप"
प्रस्तुति:- राजीव मिश्र(अपन मिथला धाम)
सुचना :- कृपया क कें अही कविता क कोप्पी न करी और एकरा इत्र-वित्र जगह पर पोस्ट नै करी.
प्रस्तुति:- राजीव मिश्र(अपन मिथला धाम)
सुचना :- कृपया क कें अही कविता क कोप्पी न करी और एकरा इत्र-वित्र जगह पर पोस्ट नै करी.
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